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कण-कण में भगवान

 कण-कण में भगवान


एक तपस्वी अपने उपदेश में शिष्यों से बार-बार कहता था, “कण-कण में भगवान हैं। संसार में ऐसी कोई वस्तु और स्थान नहीं है जहां भगवान न हों। प्रत्येक वस्तु को भगवान मानकर उसे नमन करना चाहिए।' यही उनकी शिक्षा का निचोड़ था।

उनका एक शिष्य कहीं जा रहा था। सामने से एक हाथी तेजी से दौड़ता हुआ आया। महावत लगातार

चिल्लाए जा रहा था, हट ज़ाओ, हट जांओ.. हाथी पागल हो गया है!

शिष्य को गुरु का कथन याद आया। वह वहीं खड़ा रहा। यह सोचकर कि मेरी तरह हाथी में भी भगवान का वास है.. भगवान को भगवान से कैसा डर! वह रास्ते के बीच में ही डटा रहा।

यह देखकर महावत क्रोध से चिल्लाया- “हट जाओ, क्यों मरने पर तुले हो?” पर शिष्य अपनी जगह से

एक अंगुल भी इधर-उधर नहीं हुआ। पागल हाथी ने उसे सूंड में लपेटा और घुमाकर फेंक दिया।

बेचारा घायल शिष्य वहीं पड़ा कराहता रहा, पर उसे अधिक पीड़ा इस बात की थी कि भगवान ने भगवान को मारा! 

उसके सहपाठी उसे उठाकर आश्रम में ले गए। उसने गुरु से कहा, “आप तो कहते हैं कि प्रत्येक वस्तु में भगवान हैं!

देखो, हाथी ने मेरी कैसी दुर्गति की है।' गुरु ने कहा, 'यह सत्य है कि प्रत्येक वस्तु में भगवान हैं | निश्चय ही हाथी में भी भगवान का वास है, परंतु महावत में भी तो भगवान हैं। तुम उसकी चेतावनी सुत्तकर मार्ग से हट क्यों नहीं गए?” गुरु की बात सुनकर शिष्य को अपनी भूल का अहसास हुआ।

शिक्षा - किसी शिक्षा को आधी-अधूरी समझकर उसे प्रयोग में लाना बुद्धिमानी नहीं: मूर्खता है।